Monday, December 16, 2013

महिला ---श्रमिक

आज दिनांक सत्तरह दिसम्बर दो हजार तेरह दिन मंगल वार प्रात :छै बजे ,स्थान गुड़गांव ,सुबहः जब नीद खुली दैनिक क्रिया के अनुसार चिड़ियों को चावल डालने घर के बाहर निकला तो देखा कि कुछ भी दिखाई नही दे रहा है। बाहर घन -घोर कोहरा छाया हुआ है। ओस की बूंदो से ज़मीन गीली हो रही थी।

इस तरह के मौसम में प्रातकालीन सैर को निकलना एक चुनौती सी लगी। हमने कुछ देर प्रतीछा की सुबह के सात बज चुके थे। अब हम निकल पड़े। हालात में बहुत बदलाव नही था। पाँच कदम की दूरी की वस्तु दिखलाई पड़ रही थी। दस कदम पर धुंधली आकृति समझ आती थी। इसके बाद घोर अधंकार कुछ भी नही दिखता। लैम्प -पोस्ट का प्रकाश। तारो की तरह टिम -टीमा रहा था। रवि कोहरे की ओट में था। उसके दर्शन नही हो रहे थे।

जगत का कार्य प्रांरभ हो चुका था। सड़को पर आते -जाते वाहनों की लाईट अधंकार को भेदने में समर्थ नही थी। ऐसे में देखा कि सड़क किनारे निर्माणाधीन भवन के बाहर एक महिला ,खुले असमान के नीचे ,कोहरे के ओट में स्न्नान कर रही है। गर्दन के नीचे ,पीठ के उपर ,बच्चो के दुग्ध पान स्थल को पेटीकोट से ढ़के। प्रात :काल की ठिठुरती शीत में कर्मठ सांवली काया की स्व्मनी मालती जल्दी -जल्दी डिब्बे से जल डाल कर अपने शरीर को साफ करने का प्रयास कर रही थी। अभी उसे बच्चो का खाना भी बनाना था। आठ बजते -बजते निर्माणधीन भवन,कार्य -स्थल पर उपस्थित होना था। देर होने पर ठेकेदार की ताने भरी बोली से दो -चार होना पड़ सकता है। यह भी हो सकता कि उसे काम पर ही न लिया जाये।

निर्माणधीन भवन के समीप ही ईटों को सजा कर दीवार बनाई। उस पर पन्नी व तिरपाल डालकर रैन बसेरा का प्रबन्ध कर लिया गया था। पास ही ईटों से ही निर्मित चूल्हा बनाया। बन गया इनका किचन। स्नान घर की व्यस्था तो नल किनारे। शौच के लिये दूर निर्जन एकान्त कि तलाश होती है। शहरो में भवनों के निर्माण में लाखों श्रमिक लगे है जिनकी दशा भी वैसी ही है.दूसरो के लिये आशियाने बनाने वाले श्रमिक खुद झुंगी -झोपडी में शीत ,ग्रीष्म ,वर्षा में ऐसे ही जीवन बसर करते है। महिला मजदूर मालती २९ वर्ष की है। दस वर्षो से अपने पति रामदयाल प्रजापति के साथ गुड़गांव में विभिन्न ठेकेदारो के अन्तर्गत गृह -निर्माण के कार्य में मजदूरी कर रही है ,एक अजीब बात है कि उन्हें उसी कार्य के लिये अपने पति से कम मजदूरी दी जाती है

वह डुमरिया गंज ,सिद्धार्थ नगर। उ ० प्र ० की मूल निवासी है। जब तेरह वर्ष की ऊम्र में उसका विवाह रामदयाल के साथ हुआ तो वह पाचवी क्लास में पढ़ रही थी। छै वर्ष तक गाँव में सास-ससुर की सेवा की। गाँव में खेती -पाती के साथ मनरेगा में मजदूरी भी करती थी। मनरेगा में जब दस दिन कम करती तो आठ दिन का पैसा बैक खाते में जमा होता। ग्राम -प्रधान की नजर भी गन्दी थी। वह कभी -कभी बुरे इरादे से हाथ पकड़ लेता। रामदयाल साल में एक बार होली में गाँव आता था। रामदयाल दस साल पहले अपने ताऊ के साथ गुड़गाँव आया था। जब गाँव में माता -पिता का देहान्त हो गया तो पट्टीदारों के सहारे अपनी थोड़ी खेती छोड़ कर पत्नी को भी साथ ले आया। उनके तीन बच्चे है। पहले लड़के की उमर दस वर्ष ,दूसरी लड़की आठ वर्ष ,तीसरे लड़के की उम्र अभी पाँच साल की है।

वह अपने बच्चो को पढ़ना चाहते है। उनका कार्य -स्थल बदलता रहता है। उसी के साथ उनका आशियाना भी बदल जाता है। बच्चो को दूर स्कूल भेज नही सकते है। इतनी आमदनी नही है। वह इसी तरह। किसी तरह जिंदगी की गाड़ी को खीचने का प्रयास करते है। यही हमारे देश के मजूदरों का भाग्य है। बड़े -बड़े बिल्डर करोड़ो में मुनाफा कमाते है। इन विश्वकर्मा के हिस्से आते है चन्द मजदूरी के सिक्के।

पुरुष श्रमिक तो दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद आराम करते है। कभी -कभी सुरापान कर अपनी थकान मिटाते है। और अपनी जोरू के ऊपर मर्दानगी दिखाते है। पर महिला श्रमिक को कड़ी मेहनत के बाद साय :काल परिवार के भोजन का प्रबंध करने में फिर श्रम करना होता है। यह दोहरी -तिहरी मेहनत।
मेहनत कश महिला श्रमिक का यही तो भाग्य है। 

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