दिनांक 15 जनवरी 2014
मेरे घर के छोटे से लॉन में,
जुटती है जंगली कबूतरों व गोरईया
की मजलिस।
चू -चू गुटरगू की आवाज़ से,
हवा हो उठती तरंगित।
हम प्रतिदिन नियम से,
दाना डालते है
उनके चुगने के लिये।
हम प्रतिदिन क्यारियों में,
बोते है दाने,
उगने के लिये।
जाने क्यों,उन्हें भी चुग जाते है
नादान गोरईया व कबूतर।
क्यारियाँ खाली की खाली
रह जाती है
उजाड़ ऊसर की तरह।
हम जितने भी दाने डालते है,
वह सब चुग जाती है
थोड़ी ही देर में
हम देखते देखते ही
खो जाते है
उनके फेर में।
काश !हमें भी पछियों की
भाषा आती होती,
हम उन्हें बताते कि कुछ है
उनके खाने के लिये
कुछ बीज है
और फसल
उगाने के लिये।
यदि तुम इन्हें भी चुग जाओगी
तो भविष्य में समय से पहले
बिना चुगे
खुद ही चुक जाओगी।
मेरे घर के छोटे से लॉन में,
जुटती है जंगली कबूतरों व गोरईया
की मजलिस।
चू -चू गुटरगू की आवाज़ से,
हवा हो उठती तरंगित।
हम प्रतिदिन नियम से,
दाना डालते है
उनके चुगने के लिये।
हम प्रतिदिन क्यारियों में,
बोते है दाने,
उगने के लिये।
जाने क्यों,उन्हें भी चुग जाते है
नादान गोरईया व कबूतर।
क्यारियाँ खाली की खाली
रह जाती है
उजाड़ ऊसर की तरह।
हम जितने भी दाने डालते है,
वह सब चुग जाती है
थोड़ी ही देर में
हम देखते देखते ही
खो जाते है
उनके फेर में।
काश !हमें भी पछियों की
भाषा आती होती,
हम उन्हें बताते कि कुछ है
उनके खाने के लिये
कुछ बीज है
और फसल
उगाने के लिये।
यदि तुम इन्हें भी चुग जाओगी
तो भविष्य में समय से पहले
बिना चुगे
खुद ही चुक जाओगी।
No comments:
Post a Comment