क्यों नही होती कोई ऐसी व्यवस्था *********
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एक सत्तर-साल की बूढ़ी महिला जिसकी जर्जर थी काया,
चार पहियों के ठेले को चढ़ाई पर ठेलते हुई,
हाफती हुई जिन्दगी के ढाल पर चली जा रही लुढकते हुई।
इस उम्र में भी उसे करनी पड़ती है अथक मेहनत दो जून की रोटी के लिए।
मकई के बाले भुनती है। पखें से कोयलो को दह काती है।
मकई के बालो से निकले सफेद कत्थई रेशे उसके सिर के केशों से मेल खाते है।
कोयलों की राख उसके चेहरे पर फैल जाती है।
क्यों नही होती कोई ऐसी व्यवस्था ताकि जीवन के सन्धया -काल में जी सके कोई आराम से।
सामाजिक - सुरझा के नाम पर है बहुत सी योजनाये।
क्या उनका लाभ सही लोगो तक पहुँच पायेगा।
यह विचारणीय ज्वलन्त प्रश्न सुलग रहा है हर एक के मन में। -------------------------------
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एक सत्तर-साल की बूढ़ी महिला जिसकी जर्जर थी काया,
चार पहियों के ठेले को चढ़ाई पर ठेलते हुई,
हाफती हुई जिन्दगी के ढाल पर चली जा रही लुढकते हुई।
इस उम्र में भी उसे करनी पड़ती है अथक मेहनत दो जून की रोटी के लिए।
मकई के बाले भुनती है। पखें से कोयलो को दह काती है।
मकई के बालो से निकले सफेद कत्थई रेशे उसके सिर के केशों से मेल खाते है।
कोयलों की राख उसके चेहरे पर फैल जाती है।
क्यों नही होती कोई ऐसी व्यवस्था ताकि जीवन के सन्धया -काल में जी सके कोई आराम से।
सामाजिक - सुरझा के नाम पर है बहुत सी योजनाये।
क्या उनका लाभ सही लोगो तक पहुँच पायेगा।
यह विचारणीय ज्वलन्त प्रश्न सुलग रहा है हर एक के मन में। -------------------------------
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